Tuesday, December 8, 2009
पहले वाह वाह और अब भर्तसना..आखिर क्यूँ? : प्रवचन माला
भक्त ने जानना चाहा है कि
बाबा, जो व्यक्ति पहले मेरी वाह करता था, आज वो ही मुझे गाली बक रहा है. मैं संशय में हूँ कि क्या वाह वाह को सच मानूँ या गाली को? कृप्या मुझ अज्ञानी का संशय का निराकरण करें और आशीष देवें.
बाबा का जबाब:
मेरे प्रिय आत्मन
भक्त, तुम्हारी जिज्ञासा का निराकरण इस बोध कथा से हो जायेगा:
एक जमाने में एक चित्रकार होता था.
एक विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने का उसे निमंत्रण प्राप्त हुआ. प्रतियोगिता का विषय था कि विश्व के सबसे निष्कपट, निश्छल एवं मासूम चेहरे का चित्र.
चित्रकार ऐसा चेहरा खोजने निकल पड़ा. शहर, गांव, पहाड़, तराई सब खोजते उसे एक बच्चा दिखाई पड़ा जिसे देख कोई भी सहज कह उठे कि इससे मासूम और निष्कपट तो कोई हो ही नहीं सकता.
उसने उस बच्चे से अपना प्रयोजन बताया और उसका चित्र बनाया.
चित्र ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार जीता.
बात आई गई हो गई. दुनिया अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती रही.
लगभग २५ साल बद उसी चित्रकार को फिर एक विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने का निमंत्रण प्राप्त हुआ. इस बार प्रतियोगिता का विषय था कि विश्व के सबसे खूंखार और खौफनाक चेहरे का चित्र.
चित्रकार फिर अपनी खोज पर निकला.
आतंकवादी खेमों से लेकर डकैतों तक के अड्डे तलाश डाले और अंत में एक जेल की काल कोठरी में कई हत्याओं के लिए आजीवन सजा काटते एक व्यक्ति को देख उसे लगा कि उसकी मंजिल उसे मिल गई.
उसने उस कैदी को अपना प्रयोजन बताया और उसका चित्र बनाया.
इस चित्र ने भी प्रथम पुरुस्कार जीता.
लेकिन जब चित्रकार ने चित्र बनाकर पूरा किया था तो उसने पाया कि वो कैदी रो रहा है. उसने उस कैदी से इसकी वजह जाननी चाही.
कैदी ने कहा कि आपने मुझे पहचाना नहीं. मैं वही बालक हूँ जिसका चित्र आज से २५ साल पहले आपने एक मासूम और निष्कपट बालक के रुप में उकेरा था.
कथा का सार यह है कि मन और कर्म स्वतः रुप धर परिलक्षित होते है. ईबारतें तारीखों के साथ कर्म के आधार पर बदल जाती हैं. अपने अपने समय दोनों सत्य थे.
---आशा है जिज्ञासा का निराकरण हुआ होगा---
---खुश रहो भक्त---बाबा का आशीष तो सदैव साथ है.
भविष्य में भी जिज्ञासा निवारण हेतु आश्रम के द्वार हमेशा खुले हैं.
बाबा, जो व्यक्ति पहले मेरी वाह करता था, आज वो ही मुझे गाली बक रहा है. मैं संशय में हूँ कि क्या वाह वाह को सच मानूँ या गाली को? कृप्या मुझ अज्ञानी का संशय का निराकरण करें और आशीष देवें.
बाबा का जबाब:
मेरे प्रिय आत्मन
भक्त, तुम्हारी जिज्ञासा का निराकरण इस बोध कथा से हो जायेगा:
एक जमाने में एक चित्रकार होता था.
एक विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने का उसे निमंत्रण प्राप्त हुआ. प्रतियोगिता का विषय था कि विश्व के सबसे निष्कपट, निश्छल एवं मासूम चेहरे का चित्र.
चित्रकार ऐसा चेहरा खोजने निकल पड़ा. शहर, गांव, पहाड़, तराई सब खोजते उसे एक बच्चा दिखाई पड़ा जिसे देख कोई भी सहज कह उठे कि इससे मासूम और निष्कपट तो कोई हो ही नहीं सकता.
उसने उस बच्चे से अपना प्रयोजन बताया और उसका चित्र बनाया.
चित्र ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार जीता.
बात आई गई हो गई. दुनिया अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती रही.
लगभग २५ साल बद उसी चित्रकार को फिर एक विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने का निमंत्रण प्राप्त हुआ. इस बार प्रतियोगिता का विषय था कि विश्व के सबसे खूंखार और खौफनाक चेहरे का चित्र.
चित्रकार फिर अपनी खोज पर निकला.
आतंकवादी खेमों से लेकर डकैतों तक के अड्डे तलाश डाले और अंत में एक जेल की काल कोठरी में कई हत्याओं के लिए आजीवन सजा काटते एक व्यक्ति को देख उसे लगा कि उसकी मंजिल उसे मिल गई.
उसने उस कैदी को अपना प्रयोजन बताया और उसका चित्र बनाया.
इस चित्र ने भी प्रथम पुरुस्कार जीता.
लेकिन जब चित्रकार ने चित्र बनाकर पूरा किया था तो उसने पाया कि वो कैदी रो रहा है. उसने उस कैदी से इसकी वजह जाननी चाही.
कैदी ने कहा कि आपने मुझे पहचाना नहीं. मैं वही बालक हूँ जिसका चित्र आज से २५ साल पहले आपने एक मासूम और निष्कपट बालक के रुप में उकेरा था.
कथा का सार यह है कि मन और कर्म स्वतः रुप धर परिलक्षित होते है. ईबारतें तारीखों के साथ कर्म के आधार पर बदल जाती हैं. अपने अपने समय दोनों सत्य थे.
---आशा है जिज्ञासा का निराकरण हुआ होगा---
---खुश रहो भक्त---बाबा का आशीष तो सदैव साथ है.
भविष्य में भी जिज्ञासा निवारण हेतु आश्रम के द्वार हमेशा खुले हैं.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteछोटी सी कहानी के माध्यम से एक बहुत बड़ी बात समझा दी बाबा आपने ! जय हो आपकी !
ReplyDeleteमहाराज, आप हो कौन? आप समीर जी ऊडअन तश्तरी वाले तो हो ही नहीं सकते और न ही ताऊ रामपुरिया. आप बताये कि आप कहाँ से और कैसे आये?
ReplyDeletebahut badhiya.
ReplyDeleteबोलो बाबा समीरानंद की जय, रजिस्टर्ड ब्लाग बाबा की जय,
ReplyDeleteये बाबा लोग भी आजकल मॉडर्न हो गए है ! किसी बात का सीधा जबाब नहीं देते, नेतावो की तरह गोल-मोल बात करते है ! इसे कहते है संगती का असर !:) खैर, भक्त गण, आप कुपित न हो ! यह नस्वर दुनिया कभी भी एक जगह नहीं टिकती, सब चलायमान है साइकिल का पहिया जब घूमता है तो रिम का जो हिस्सा अभी जमीन से लगा हुआ है पहिये के घूमने पर थोड़े ही वक्त में ऊपर सीट के ठीक नीचे पहुच जाता है, फिर नीची जमीन से आ लगता है ! जिस तरह जीवंन में सुख और दुःख आते जाते रहते है, ठीक उसी तरह आपके साथ यह भा हो रहा है ! क्या पता कल उसका फिर से आपसे कोई काम पड़ जाए, फिर देखिएगा, वह फिर से आपकी तारीफों के पुल बाँधना शुरू कर देगा ! यही इस दुनिया की रीत है ! आप बिलकुल भी निराश न हो और अपने पथ पर सतत चलते जाए,
ReplyDeleteआमीन !!
बाबा जय हो!..
ReplyDeleteबाबा हमको तो लगत है कि आपको ई प्रवचन कथा के साथ साथ ट्यूशन क्लास भी शुरू करना पडेगा ...काहे से कौन जाने ई ्बोध कथा ..उ समझबे न करें तब ..
जय हो!
ReplyDeleteबाबा जी!बहुत ही बढिया रही आपकी ये बोधकथा
बहुत खूबसूरत और मन मष्तिष्क को शांति प्रदान करने वाली बोध कथा.
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद.
रामराम.
बाबा ...प्रणाम..... पांय लागी.... इस भक्त पे भी थोड़ी दया करिए..... आशीर्वाद कि बहुत ज़रूरत है...........
ReplyDeleteमार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
ReplyDeleteमजेदार प्रवचन...
ReplyDeleteवाह! यह सब क्या है!मनोरन्जन के नये रुप!जो भी है..बहुत मेहनत से ब्लोग बनाया है...मज़ेदार प्रवचन भी...
ReplyDeleteवाह क्या बोध कथा! जिज्ञासा समाधानकारक !
ReplyDelete